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याभि॑र्व॒म्रं वि॑पिपा॒नमु॑पस्तु॒तं क॒लिं याभि॑र्वि॒त्तजा॑निं दुव॒स्यथ॑:। याभि॒र्व्य॑श्वमु॒त पृथि॒माव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yābhir vamraṁ vipipānam upastutaṁ kaliṁ yābhir vittajāniṁ duvasyathaḥ | yābhir vyaśvam uta pṛthim āvataṁ tābhir ū ṣu ūtibhir aśvinā gatam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

याभिः॑। व॒म्रम्। वि॒ऽपि॒पा॒नम्। उ॒प॒ऽस्तु॒तम्। क॒लिम्। याभिः॑। वि॒त्तऽजा॑निम्। दु॒व॒स्यथः॑। याभिः॑। विऽअ॑श्वम्। उ॒त। पृथि॑म्। आव॑तम्। ताभिः॑। ऊँ॒ इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म् ॥ १.११२.१५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:112» मन्त्र:15 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:35» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को वैद्य और शिल्पविद्या में पुरुषार्थ रखनेवाले जन किसलिये सेवन करने योग्य हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) राज प्रजाजनो ! तुम (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (विपिपानम्) विशेष कर ओषधियों के रसों को जो पीने के स्वभाववाला (उपस्तुतम्) आगे प्रतीत हुए गुणों से प्रशंसा को प्राप्त (कलिम्) जो सब दुःखों से दूर करने वा ज्योतिष शास्त्रोक्त गणितविद्या को जाननेवाला (वित्तजानिम्) और जिसने हृदय को प्रिय सुन्दर स्त्री पाई हो उस (वम्रम्) रोग निवृत्ति करने के लिये वमन करते हुए पुरुष की (दुवस्यथः) सेवा करो, (याभिः) वा जिन रक्षाओं से (व्यश्वम्) विविध घोड़े वा अग्न्यादि पदार्थों से युक्त सेना वा यान की सेवा करो (उत्) और (याभिः) जिन रक्षाओं से (पृथिम्) विशाल बुद्धिवाले पुरुष की (आवतम्) रक्षा करो (ताभिः, उ) उन्हीं से आरोग्य को (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार सब ओर से प्राप्त हूजिये ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि सद्वैद्यों के द्वारा उत्तम ओषधियों के सेवन से रोगों का निवारण, बल और बुद्धि को बढ़ा, सेनाके अध्यक्ष और विस्तृत पुरुषार्थयुक्त शिल्पीजन की सम्यक् सेवा कर शरीर और आत्मा के सुखों को प्राप्त होवें ॥ १५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैर्वैद्यशिल्पपुरुषार्थिनः किमर्थं सेव्या इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे अश्विना राजप्रजाजनौ युवां याभिरूतिभिर्विपिपानमुपस्तुतं कलिं वित्तजानिं वम्रं दुवस्यथः। याभिर्व्यश्वं दुवस्यथ उत याभिः पृथिमावतं ताभिरु नैरोग्यं स्वागतम् ॥ १५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (याभिः) (वम्रम्) रोगनिवृत्तये वमनकर्त्तारम् (विपिपानम्) औषधरसानां विविधं पानं कर्त्तुं शीलम् (उपस्तुतम्) उपगतैर्गुणैः प्रशंसितम् (कलिम्) यः किरतिं विक्षिपति दुःखानि दूरीकरोति तं गणकं वा (याभिः) (वित्तजानिम्) वित्ता प्रतीता जाया हृद्या स्त्री येन तम्। अत्र जायाया निङ्। अ० ५। ४। १३४। इति जायाशब्दस्य समासान्तो निङादेशः। (दुवस्यथ) परिचरतम् (याभिः) रक्षणक्रियाभिः (व्यश्वम्) विविधा विगता वा अश्वास्तुरङ्गा अग्न्यादयो वा यस्मिन् सैन्ये याने वा तम् (उत) अपि (पृथिम्) विशालबुद्धिम् (आवतम्) कामयतम् (ताभिः) इत्यादि पूर्ववत् ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सद्वैद्यद्वारोत्तमान्यौषधानि सेवित्वा रोगान्निवार्य बलबुद्धी वर्धित्वा सेनापतिं शिल्पिनं विस्तृतपुरुषार्थिनं च जनं संसेव्य शरीरात्मसुखानि सततं लब्धव्यानि ॥ १५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सद्वैद्यांद्वारे उत्तम औषधींच्या सेवनाने रोगांचे निवारण करून बल व बुद्धी वाढवून सेनापती व अत्यंत पुरुषार्थयुक्त शिल्पीजनांची सम्यक सेवा करून शरीर व आत्म्याचे सुख प्राप्त करावे. ॥ १५ ॥